Tuesday, 29 November 2016

उड़ गई उदासी




 

प्रसिद्ध सूफी संत रबिया रहम्तुल्लाई का जन्म इराक के बसरा नामक नगर में एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ था | रबिया के सिर से उसके माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया था | फलस्वरूप रबिया का बचपन माता-पिता के प्यार से वंचित ही रहा | माता पिता के लाड़-प्यार के अभाव की वजह से रबिया सदा-उदास रहती थी | उसके घर के निकट ही एक कुटिया में उच्चकोटि के संत रहते थे | रबिया की उदासी देख संत का ह्रदय द्रवित हो गया | संत ने रबिया से कहा ‘बेटी, परमात्मा बड़ा कृपानिधान है, सुबह-शाम इस कुटिया में इश्वर की महिमा का सत्संग है, दूर-दूर से लोग मन की शांति के लिए सत्संग सुनने आते हैं | तुम भी आ जाया करो, हो सकता है मन की उदासी दूर करने का कोई सूत्र मिल जाए |’ अपनी उदासी दूर करने के लिए रबिया भी संत की कुटिया में सत्संग सुननें जाने लगी | वहां जाने पर उसके मन को बड़ी शांति मिलती थी | परम-पिता परमात्मा के आनंदस्वरूप का वर्णन सुनकर रबिया की उदासी वाष्प बनकर उड़ने लगी | अब वह जीवन निर्वाह के लिए एक साहूकार के घर कामकाज करती और शेष समय इश्वर की याद में लीन रहती | इस प्रकार दिन बीतते गए और रबिया में सुमिरन, ध्यान और ईश्वर-प्रेम में भी दृढ़ता आती गई | रबिया को अपने सांसारिक जीवन में बहुत दारुण कष्ट झेलने पड़े, किन्तु उन कष्टों को भी उसने ईश्वर का प्रसाद समझकर सहन किया | रबिया के विचारों में ईश्वर-कृपा से पूर्ण परिवर्तन हो गया | वह प्रार्थना कष्टों की निवृति के लिए नहीं, अपितु ईश्वर की कृपाओं के गुणगान के लिए करती थी |

ईश्वर सबके लिए सोचता है |




 
हैलो दोस्तों ... जीवन दर्शन के इस ब्लॉग पर आपका फिर से Welcom..!!
दोस्तों कई बार हमें ऐसा लगता है की हमारे साथ कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है.. जो करना चाहते है वो हो नहीं पा रहा है..और जो चाह रहे है वो मिल नहीं पा रहा है.. हमें ऐसा लगने लगता है कि ऐसी क्या कमी रह गयी है हममे जिसके कारण भगवान हमें वह नहीं दे रहा है जिसकी हमें सबसे ज्यादा जरुरत है.. पर सच यह है दोस्तों... कि “भगवान् वो नहीं देता जो हमें ठीक लगता है.. बल्कि भगवान वो देता है जो हमारे लिए ठीक होता है..” आइये एक छोटी से प्रेरक-कथा पढ़कर हम भी इस कथन को समझे...
 

क बार भगवान् से उनका सेवक कहता है-
"भगवान् – आप एक जगह खड़े-खड़े थक गए होंगे, एक दिन के लिए मैं आपकी जगह मूर्ति बन कर खड़ा हो जाता हु, आप मेरा रूप धारण कर घूम आओ |" भगवान् मान जाते है लेकिन शर्त रखते है, कि जो भी लोग प्रार्थना करने आये, तुम उनकी प्रार्थना सुन लेना कुछ बोलना नहीं, मैंने उन सभी के लिए प्लानिंग कर रखी है |
सेवक मान जाता है | और भगवान् के स्थान पर खड़ा हो जाता है. तभी कुछ देर बाद एक व्यापारी वहां प्रार्थना के लिए पहुचता है.. वह उसकी बातों को सुनता है परन्तु कुछ नहीं बोलता है.. जाते समय उस व्यापारी के जेब से नोटों की गड्डी गिर जाती है. परन्तु वह जल्दबाजी में उसे देख नहीं पाता | और न ही सेवक कुछ बोल पाता है.. तभी उसके जाने के बाद एक गरीब आदमी भगवान से अपनी विनती करने पहुचता है.. अपनी गरीबी दूर करने के लिए , तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए दया-याचना करता है.. तभी उसकी नज़र रुपयों की गड्डी पर पड़ती है.. उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा.. वह भगवान् को धन्यवाद करते हुए उस पैसे को उठाकर चला जाता है.. सेवक उसे रोकना चाहता था पर रोक नहीं पाया.. थोड़ी देर बाद एक दलाल  पहुचता है जो जहाजो में आयत-निर्यात का कार्य करता था | वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि- हे ईश्वर जिस प्रकार अभी तक तूने मुझ पर अपनी कृपा बरसायी , वैसे ही हमेशा मुझ पर कृपा बरसाते रहना और मेरे साथ रहना | इस बार मुझे सौदे के लिए विदेश जाना है.. इतना कहकर वह जैसे ही मुड़ता है कि वह व्यापारी आ पहुचता है जिसका नोटों की गड्डी गिरी हुई थी.. वह आते ही अपने रुपयों की मांग करता है.. पर दलाल उसे साफ़ मना कर देता है कि ना ही उसने कोई रूपये रखे है | और ना ही वह उसके बारे में कुछ जानता है.. यह सुनकर व्यापारी और भी गुस्सा हो जाता है.. और यह कहकर की मेरे बाद तुम्ही यहाँ आए हो, सीधे-सीधे से मेरे रूपये वापिस लौटा दो , नहीं तो मैं तुम्हे पुलिस के हवाले कर दूंगा | बातें बिगड़ते देख ईश्वर बना सेवक उनके सामने आ जाता है और सब कुछ सच-सच बता देता है | उसकी बातों को सुनकर पुलिस गरीब के घर पहुचकर उसे गिरफ्तार करके जेल में डाल देता है और रुपयों को व्यापारी को वापस लौटा देता है.. जब ईश्वर वापस आते है तो सेवक पूरी घटना को बताता है और कहता है कि मैंने आपका काम बहुत अच्छे तरीके से किया तथा न्याय का साथ दिया.. ईश्वर उनकी बातों को सुनकर बोलते है की तुमने कुछ भी ठीक नहीं किया | तुम्हारे बोलने के कारण सबकुछ गड़बड़ हो गया | यदि व्यापारी का थोडा धन खो भी जाता तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता वो और भी कमा सकता था.. किन्तु यदि थोडा-सा धन भी उस गरीब को मिल जाता तो उसके परिवार सुखी-सुखी जीवन व्यतीत कर सकते थे | और जो दलाल अपनी सौदे के लिए विदेश जा रहा था उसकी जहाज आज डूबने वाली है और उसमे उसकी मौत हो जाएगी | यदि वह कुछ दिन जेल में रहता तो उसकी मौत होने से बच जाती | उसके परिवार एवं उसके द्वारा किया गया प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाता | परन्तु तुमने बोलकर सबकुछ गड़बड़ कर दिया | यह सुनकर सेवक को अपने कार्य पर बहुत पछतावा होता है. वह ईश्वर से क्षमा याचना करता है.. साथ ही उसे इस बात की भी यकीं हो जाता है की ईश्वर का कार्य इतना आसान नहीं होता जितना हम समझते है.. ईश्वर वही करते है जो हमारे लिए ठीक होता है...


तो देखा दोस्तो.. कि हम कैसे अपनी नासमझी के कारण खुद को तकलीफ एवं मुसीबत  में डाल देते है , और फिर बाद में ईश्वर को ही दोष देते है.. |
दोस्तों आपको यह कहानी कैसे लगी अपनी comment से जरुर बताइयेगा |

धन्यवाद् !

Monday, 28 November 2016

कबीर जी के दोहे- अर्थ सहित ||



हैलो दोस्तों कैसे है आप ? आप सभी का मेरे इस ब्लॉग में स्वागत है
आज मैं आप लोगो के लिए एक ऐसी संग्रह लेकर आया हु.. जिसे कई लोगो ने पहले भी पढ़ा होगा| और कई लोग नहीं भी पढ़े होंगे या कुछ अंश पढ़े होंगे... आज जो संग्रह मैंने आप लोगो के लिए लाया है.. वो है .. “कबीर जी के दोहे” दोस्तों आज भी कबीर जी के दोहे उतने ही महत्वपूर्ण, प्रभावी एवं चरितार्थ है.. जितने पूर्व में कहे एवं लिखे गये थे.. और आज भी यदि कोई भी मनुष्य अपने जीवन में तनिक भी इसका चिंतन करे और उसमे अमल करे तो मैं समझता हु उसका जीवन बहुत ही सार्थक सिद्ध हो सकता है .. मेरी शुरू से यही कोशिश रही है और रहेगी की मैं आप लोगो को ज्यादा से ज्यादा ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी जानकारी आप लोगो के साथ साझा कर सकू जिससे आप लोगो को और अधिक से अधिक लाभ मिल सके |





बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय|

अर्थ :- जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला | जब मैंने मन में झाँका तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.

पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय|    

अर्थ :- बड़ी बड़ी पुस्तक पढ़कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुच गए है, पर सभी विद्वान न हो सके, कबीर जी मानते है है कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा |

साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय |

अर्थ:- इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरुरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है, जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे |

तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पावन तर होय,
कबहूँ उडी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय |

अर्थ:- कबीर जी कहते है कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के निचे दब जाता है , यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है |

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सीचे सौ घड़ा, ऋतू आए फल होय |

अर्थ:- मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है , अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सिचने लगे तब भी फल तो ऋतू आने पर ही लगेगा |

माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर |

अर्थ:- कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती, कबीर जी की ऐसी ब्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो |

जाति न पूछो साधू की, पुच लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान |

अर्थ:- सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए, तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी म्यान का |

दोस पराये देखि करि, चला हसंत हसंत,
अपने याद न आवई, जिसका आदि न अंत |

अर्थ:- यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दुसरो के दोष देख कर हस्त है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है, न अंत |

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बुडन डरा, रहा किनारे बैठ |

अर्थ:-  जो प्रयत्न करते है, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते है जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है, लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते है जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठ रह जाते है और कुछ नहीं पाते है |

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौली के, तब मुख बाहर आनि |

अर्थ:- यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है | इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तौलकर ही उसे मुह से बाहर आने देता है |

Sunday, 27 November 2016

पद से नहीं, इंसानियत से बड़ा बनिए |


दोस्तों कभी-कभी हमारे जीवन में ऐसे क्षण आते है जब हमें लगता है कि काश मैं इतनी हैसियत रखता की दुसरो की मदद कर पाता | और जब हम उस मुकाम को पा लेते है तो हमें अपने से छोटे लोगो की मदद करने में हीन भावना उत्पन्न होती है..हमें अपने मान-सम्मान, तथा अपनी ईज्जत का ख्याल आता है..  और इस प्रकार की बदलाव हमारे समाज में सदियों से चला आ रहा है.. किन्तु दोस्तों हमें याद रखना चाहिए की मनुष्य कभी भी धन,बल और पद से बड़ा या छोटा नहीं होता .. क्यूंकि ये स्थायी नहीं होते.. मनुष्य बड़ा होता है तो अपनी अच्छे कर्मो से, और अच्छे कर्म करने के लिए ना ही हमें अधिक धन और बल की आवश्यक्ता होती है और ना ही बड़े पद की | आवश्यकता है तो सिर्फ एक अच्छी सोच और एक दृढ़ विश्वास की | और इसके द्वारा हमें जो फल मिलता है वो अस्थायी होता है और जीवन में आगे चलकर कही न कही जरुर लाभ पहुंचाती है | इन्ही विचारो को प्रमाणित करने के लिए मैं आप लोगो के लिए एक सुन्दर सा लघु प्रेरक कथा लेकर आया हूँ , जो एक सत्य घटना है.. उम्मीद है आप लोगो को जरुर पसंद आएगी |

मुसलाधार वर्षा के साथ ठण्ड अपने चरम पर थी | इसी मौसम में एक अधेड़ दम्पति ने Filadelphiya के एक छोटे से होटल के Reception Clerk से एक कमरा देने का अनुरोध किया | Clerk ने अपनी मज़बूरी बता कर कहा कि सारे कमरे घिरे हुए है | दम्पति यह सुनकर निराश होकर बोले, ‘अब ऐसे मौसम में हम लोग कहाँ जाएं ?’ Receptionist ने कुछ देर सोचा और बोला कि अगर आपको ऐतराज ना हो, तो मेरा एक अपना छोटा सा साधारण कमरा है, आप उसमे रात गुजार सकते है | आगंतुक दम्पति ने उसको धन्यवाद् दिया और उसके कमरे में रात बिताई | सुबह जाते समय असुविधा में सोते हुए Receptionist Clerk को जगाना उचित न समझकर चले गए | इसके कई वर्षो बाद उस Clerk को एक पत्र मिला जिसके साथ Newyork की Flight की Ticket भी थी | आश्चर्यचकित-सा Clerk , Newyork पंहुचा तो उसने देखा उसके स्वागत में सालों पहले उसके कमरे में रात बिताने वाले वही महाशय खड़े थे | वह थे America के प्रसिद्ध न्यायाधीश “Willium Welford Austo” दुसरे दिन वे उसे अपने साथ लेकर Welford Austoria Hotel पहुचे | उन्होंने उस Clerk से कहा कि आज से आप इस Hotel के Manager हो | Clerk बोला – ‘मैं मामूली से Hotel में काम करने वाला Clerk क्या इतने बड़े Hotel का प्रबंध संभाल पाऊँगा ? न्यायाधीश ने कहा कि तुम साधारण नहीं हो | तुम्हारे अन्दर मानवता का, दया का ऐसा गुण है जो केवल असाधारण व प्रतिभावान व्यक्तियों में ही हो सकता है | 

 


तो देखा दोस्तों एक Clerk न कि अपने पद के कारण, बल्कि अपने अच्छे व्यवहारों के कारण उनकी मदद किये और उनके द्वारा किये गए अच्छे कर्म (सहायता) का फल उन्हें देर सही पर मिला जरुर. .. इसलिए दोस्तों हमें कभी भी, कहीं भी ऐसा मौका या अवसर मिले तो निसंकोच मदद के लिए आगे आना चाहिए | आप एक कदम बढाइये लोग आपको देखकर आपके साथ न चले तो कहना.....


So Best Of Luck...

Thursday, 24 November 2016

दिखावा नहीं, निःस्वार्थ प्रेम करना सीखो



     मैं अगर कहूँ कि तुम्हारा ईश्वर प्रेम एक दिखावा मात्र है, तो तुम नाराज हो जाओगे | उस प्रेम को एक शब्द भर कहूँ, तो तुम बिखर जाओगे | दरअसल इस तरह का प्रेम, प्रेम के त्रिकोण में नहीं ठहरता | यह तो एक जबरदस्ती है, जो तुम झूम झूमकर कर रहे हो | एक बार उठकर, कपडे झाड़कर अपने भीतर झांको | इस दृष्टी में रत्ती भर भी दृष्टीदोष न हो | सबको भले ही धोखा दो, मगर कम से कम अपने आप को धोखा मत देना | सर से पांव तक, शरीर से आत्मा तक स्वयं में झांको | देखो तुम्हारा प्रेम कहीं डर से तो नहीं है? कहीं नरक के खौलते तेल और धधकती आग से डर कर तो ईश्वर की तरफ नहीं भाग रहे हो? अगर तुममें डर के कारण प्रेम है तो यह प्रेम पहले दर्जे का झूठा है | जहाँ प्रेम होगा, वहां डर कहाँ होगा? प्रेम की दूसरी कड़ी को देखो | जब ह्रदय कहे कि तुम्हें ईश्वर ने क्या-क्या नहीं दिया | इसलिए उसे प्रेम करो, तो यह प्रेम सिर्फ व्यापार है | तुम भोजन, धन, घर, खुशियों के लिए कृतज्ञ होकर यदि ईश्वर से प्रेम करते हो तो यह दुसरे दर्जे का झूठा प्रेम है | ऐसा प्रेम किसी को ख़ुशी नहीं दे सकता | जो प्रेमभाव स्वार्थ पर टिका हो उसे ईश्वर के प्रेम में लाना गलत है | ईश्वर को प्रेम करो या न करो, वह अच्छा बुरा करता ही रहेगा | इसलिए प्रेम का यह रूप भी ईश्वर के निकट नहीं पहुँचता | अब आते हैं प्रेम की प्रतियोगिता पर | यदि तुम्हे लगता है कि ईश्वर से प्रेम में कोई तुमसे आगे है और कोई तुमसे पीछे, तो समझ लो कि तुम्हारा प्रेम खोखला है | ईश्वर से प्रेम करने में न तो डर और व्यापार माध्यम बनना चाहिए | और ना हि प्रतियोगिता | यह तो स्वतः निःस्वार्थ भाव से प्रगट होना चाहिए | यदि ऐसे प्रेम जिसमे निःस्वार्थ भाव न होकर अन्य तीनो (डर, व्यापार,प्रतियोगिता) का समावेश हो | वह प्रेम नहीं, एक छलावा मात्र है | और ऐसे छलावा-रूपी प्रेम से हम कभी भी ईश्वर की कृपा नहीं पा सकते |